भेद-विभेद
हम देखै छी आकाश मे हाँजक हाँज सुग्गा केँ कुचरैत
तँ लगैत अछि
जे असंख्य पात कलरव करैत
विदा भ’ गेल अछि कोनो वानस्पतिक तीर्थयात्रा पर
हम विनम्र पात सँ छारल गाछ दिस देखै छी
तँ लगैत अछि
जे असंख्य सुग्गा सभ
योगासनक अलग-अलग मुद्रा में
अछि गाछ पर चुपचाप बैसल
हे भगवान!
हमरा कहिया भेटत ओ दुर्लभ दृष्टि
कि विभेदक एहि मटकुइयाँ सँ बहार निकलि सकब हम!
पिता
आधा उमेर बीत गेल
एहि प्रयास मे
जे कोना
पिताक प्रभाव सँ होइ मुक्त
मुक्ति तँ खैर की भेटितै
हँ हमर बदला
पिता केँ मुक्ति भेटि गेलनि अवश्य
आब हमरो अछि एक टा संतान
आब हमहुँ बनि गेल छी एक टा पिता
आब हम अप्पन भेस
अप्पन भाषा
आ अप्पन भंगिमा मे
पल-प्रतिपल
अप्पन पिता केँ पुनर्जन्म लैत देखैत रहै छी…
बुद्ध सँ
नहि तथागत
एना नहि भेटैत अछि मुक्ति
अहाँ तँ कहियो
दूधक गंध सँ सुवासित चिलकाक
भमरा सन आँखि केँ निहारैत
पल-प्रतिपल
अपना केँ पुनर्जन्म लैत देखिए नहि सकलहुँ
अहाँ तँ
हाड़तोड़ मेहनतिक बाद
रोटी आ पियाउजक अमृत स्वाद सँ अनवगते रहलहुँ
आ आखर मचान पर
नीनक प्राचीन मदिरा सँ आचमन कैए नहि सकलहुँ कहियो
कोनो एहेन क्षण मे
जखन ई जीवन जर्जर पलस्तर जकाँ झहरि रहल हो बाहर
आ भीतर एकटा झंझावात उठि रहल हो
तखन कोनो स्त्रीक छाह में कहियो
कोनो अर्थक संधान करब
अहाँ सँ पारे नहि लागल
फेर अहाँ की जान’ गेलिऐ जे की होइ छै मुक्ति
आह!वाह!
आह मिथिला!
वाह मिथिला!
सब मिलिक’ केलिऔ
तोरा खूब तबाह मिथिला!
एक दिन
आइ नहि तँ काल्हि
कल्हि नहि तँ परसू
परसू नहि तँ तरसू
नहि तरसू..नहि महीना..किछु बरखक बाद…
एक दिन अहाँ घूरि क’ आयब अही चौकठि पर
आ बेर-बेर अपनहि सँ कहब अपना-
धन्यवाद! धन्यवाद!
हम देखै छी आकाश मे हाँजक हाँज सुग्गा केँ कुचरैत
तँ लगैत अछि
जे असंख्य पात कलरव करैत
विदा भ’ गेल अछि कोनो वानस्पतिक तीर्थयात्रा पर
हम विनम्र पात सँ छारल गाछ दिस देखै छी
तँ लगैत अछि
जे असंख्य सुग्गा सभ
योगासनक अलग-अलग मुद्रा में
अछि गाछ पर चुपचाप बैसल
हे भगवान!
हमरा कहिया भेटत ओ दुर्लभ दृष्टि
कि विभेदक एहि मटकुइयाँ सँ बहार निकलि सकब हम!
पिता
आधा उमेर बीत गेल
एहि प्रयास मे
जे कोना
पिताक प्रभाव सँ होइ मुक्त
मुक्ति तँ खैर की भेटितै
हँ हमर बदला
पिता केँ मुक्ति भेटि गेलनि अवश्य
आब हमरो अछि एक टा संतान
आब हमहुँ बनि गेल छी एक टा पिता
आब हम अप्पन भेस
अप्पन भाषा
आ अप्पन भंगिमा मे
पल-प्रतिपल
अप्पन पिता केँ पुनर्जन्म लैत देखैत रहै छी…
बुद्ध सँ
नहि तथागत
एना नहि भेटैत अछि मुक्ति
अहाँ तँ कहियो
दूधक गंध सँ सुवासित चिलकाक
भमरा सन आँखि केँ निहारैत
पल-प्रतिपल
अपना केँ पुनर्जन्म लैत देखिए नहि सकलहुँ
अहाँ तँ
हाड़तोड़ मेहनतिक बाद
रोटी आ पियाउजक अमृत स्वाद सँ अनवगते रहलहुँ
आ आखर मचान पर
नीनक प्राचीन मदिरा सँ आचमन कैए नहि सकलहुँ कहियो
कोनो एहेन क्षण मे
जखन ई जीवन जर्जर पलस्तर जकाँ झहरि रहल हो बाहर
आ भीतर एकटा झंझावात उठि रहल हो
तखन कोनो स्त्रीक छाह में कहियो
कोनो अर्थक संधान करब
अहाँ सँ पारे नहि लागल
फेर अहाँ की जान’ गेलिऐ जे की होइ छै मुक्ति
आह!वाह!
आह मिथिला!
वाह मिथिला!
सब मिलिक’ केलिऔ
तोरा खूब तबाह मिथिला!
एक दिन
आइ नहि तँ काल्हि
कल्हि नहि तँ परसू
परसू नहि तँ तरसू
नहि तरसू..नहि महीना..किछु बरखक बाद…
एक दिन अहाँ घूरि क’ आयब अही चौकठि पर
आ बेर-बेर अपनहि सँ कहब अपना-
धन्यवाद! धन्यवाद!
स्वागत अछि, कृष्नमोहन जी।
ReplyDeletenarayan narayan ke alava kya kah sakte hain.
ReplyDeleteBhavpurn panktiyan, Swagat.
ReplyDeleteBAHOOT ACHCHI RASCHNA HAI.DHANYABAD KRISHNA MOHAN JI
ReplyDeleteबहुत बढ़िया भाइ, आइ पहिल बेर अहां के ब्लॉग पर पहुंचलहुं...न-नव कविता सब दियौ एह पर...अशेष शुभकामना....
ReplyDeleteरमण कुमार सिंह, दिल्ली